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रबीन्द्रनाथ टैगोर

कवि

रबीन्द्रनाथ टैगोर (७ मई, १८६१ – ७ अगस्त, १९४१) - विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता हैं। उन्हें गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगदृष्टा थे। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान 'जन गण मन' और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार सोनार बांङ्ला' गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।

नालंदा विश्वविद्यालय क्यों जलाया गया

प्रस्तावना: जब ज्ञान की राजधानी खामोश कर दी गई

बिहार की धरती पर स्थित नालंदा विश्वविद्यालय केवल एक शिक्षण संस्थान नहीं था, बल्कि प्राचीन विश्व का सबसे बड़ा ज्ञान केंद्र था। यहाँ एशिया के कोने-कोने से विद्यार्थी पढ़ने आते थे। गणित, खगोल विज्ञान, चिकित्सा, दर्शन, तर्कशास्त्र—सब कुछ यहाँ पढ़ाया जाता था।

आज नालंदा के खंडहर खड़े हैं, लेकिन एक प्रश्न अब भी इतिहास के पन्नों में गूंजता है—आख़िर नालंदा विश्वविद्यालय को जलाया क्यों गया? क्या यह केवल युद्ध का परिणाम था, या इसके पीछे कोई गहरी साज़िश छिपी थी?

नालंदा विश्वविद्यालय: ज्ञान का वैश्विक केंद्र

नालंदा की स्थापना पाँचवीं शताब्दी में गुप्त वंश के राजा कुमारगुप्त ने की थी। यह विश्वविद्यालय लगभग 800 वर्षों तक निरंतर सक्रिय रहा—जो अपने आप में अभूतपूर्व है।

यहाँ 10,000 से अधिक छात्र और 2,000 से ज्यादा शिक्षक रहते थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग और इत्सिंग ने नालंदा का विस्तार से वर्णन किया है, जिसमें विशाल पुस्तकालय, छात्रावास और अध्ययन कक्षों का उल्लेख मिलता है।

नालंदा का पुस्तकालय—धर्मगंज—तीन विशाल इमारतों में फैला था। कहा जाता है कि इसमें लाखों पांडुलिपियाँ थीं, जिनमें दुर्लभ विज्ञान, गणित और चिकित्सा ज्ञान संग्रहित था।

बख़्तियार खिलजी का आक्रमण: इतिहास क्या कहता है?

12वीं शताब्दी के अंत में तुर्क आक्रमणकारी बख़्तियार खिलजी ने बिहार और बंगाल पर चढ़ाई की। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, उसने नालंदा पर भी हमला किया।

मिन्हाज-ए-सिराज जैसे इतिहासकार लिखते हैं कि खिलजी और उसके सैनिकों ने नालंदा को एक क़िला समझकर हमला किया। जब उन्हें पता चला कि यह एक विश्वविद्यालय है, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

किंवदंती है कि पुस्तकालयों में लगी आग महीनों तक जलती रही। यदि यह सत्य है, तो इसका अर्थ है कि वहाँ संग्रहित ज्ञान की मात्रा कितनी विशाल रही होगी।

क्या यह केवल सैन्य भूल थी?

कई आधुनिक इतिहासकार इस कथन से सहमत नहीं हैं कि नालंदा का विनाश केवल “भूल” थी। उनका मानना है कि यह एक सांस्कृतिक और वैचारिक टकराव का परिणाम था।

नालंदा बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। उस समय भारत में धार्मिक और राजनीतिक सत्ता परिवर्तन हो रहा था। नए शासकों के लिए पुराने ज्ञान केंद्र सत्ता के लिए चुनौती बन सकते थे।

इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो नालंदा का विनाश केवल इमारतों का नहीं, बल्कि विचारों का दमन भी था।

छिपा इतिहास: ज्ञान को मिटाने की राजनीति

इतिहास में कई बार ऐसा हुआ है जब सत्ता परिवर्तन के साथ ज्ञान केंद्रों को नष्ट किया गया। नालंदा भी इसी राजनीति का शिकार हो सकता है।

यह विश्वविद्यालय केवल पढ़ाई का स्थान नहीं था, बल्कि स्वतंत्र विचार, तर्क और बहस का केंद्र था। ऐसे केंद्र अक्सर कट्टर सत्ता संरचनाओं को असहज करते हैं।

कुछ विद्वानों का मानना है कि नालंदा का विनाश भारतीय उपमहाद्वीप के बौद्धिक पतन की शुरुआत थी।

मिथक बनाम तथ्य

यह मिथक है कि नालंदा केवल एक धार्मिक संस्थान था। वास्तविकता यह है कि यहाँ विज्ञान, चिकित्सा और गणित भी पढ़ाया जाता था।

यह भी मिथक है कि नालंदा का पतन अचानक हुआ। वास्तव में, राजनीतिक अस्थिरता और संरक्षण की कमी ने इसे पहले ही कमजोर कर दिया था।

निष्कर्ष: नालंदा क्यों आज भी प्रासंगिक है

नालंदा का विनाश हमें यह याद दिलाता है कि सभ्यताएँ केवल युद्ध से नहीं, बल्कि ज्ञान के नष्ट होने से भी गिरती हैं।

आज जब नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित किया गया है, यह केवल एक संस्थान नहीं, बल्कि इतिहास से सीखने का प्रयास है।

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