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रबीन्द्रनाथ टैगोर

कवि

रबीन्द्रनाथ टैगोर (७ मई, १८६१ – ७ अगस्त, १९४१) - विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता हैं। उन्हें गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगदृष्टा थे। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान 'जन गण मन' और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार सोनार बांङ्ला' गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।

प्राचीन भारतीय सर्जरी: बिना मशीन

जब सर्जरी मशीनों की मोहताज नहीं थी

आज जब हम ऑपरेशन थिएटर की कल्पना करते हैं, तो हमारे दिमाग में रोबोटिक आर्म्स, लेज़र मशीनें, एनेस्थीसिया उपकरण और मॉनिटर घूमने लगते हैं। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि हजारों साल पहले, जब बिजली, मशीन और आधुनिक दवाइयाँ नहीं थीं, तब भी भारत में अत्यंत जटिल सर्जरी की जाती थी।

यह कोई लोककथा या अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि प्राचीन चिकित्सा ग्रंथों, विदेशी यात्रियों के विवरण और आधुनिक वैज्ञानिक शोधों से प्रमाणित तथ्य है। उस समय सर्जरी केवल शरीर काटने तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह एक पूर्ण विज्ञान था—जिसमें शरीर रचना, स्वच्छता, औषधि और पुनर्वास का गहरा ज्ञान शामिल था।

यह लेख उसी अद्भुत ज्ञान की कहानी है—जब बिना मशीन, बिना बिजली और बिना आधुनिक तकनीक के इंसानी शरीर पर सफल ऑपरेशन किए जाते थे।

सुश्रुत संहिता: सर्जरी का पहला वैज्ञानिक ग्रंथ

प्राचीन भारतीय सर्जरी का केंद्र बिंदु है सुश्रुत संहिता। इसे आज भी विश्व का पहला व्यवस्थित सर्जरी ग्रंथ माना जाता है। आचार्य सुश्रुत को “Father of Surgery” कहा जाता है—और यह उपाधि केवल भारत में नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मेडिकल इतिहास में स्वीकार की गई है।

सुश्रुत संहिता में 300 से अधिक सर्जिकल प्रक्रियाएँ, 120 से अधिक सर्जिकल उपकरण और मानव शरीर की विस्तृत शारीरिक संरचना का वर्णन मिलता है। यह ग्रंथ केवल सिद्धांत नहीं, बल्कि व्यावहारिक प्रशिक्षण पर आधारित था।

सुश्रुत अपने छात्रों को पहले फल, सब्ज़ी, चमड़े और मृत शरीरों पर अभ्यास करवाते थे, ताकि जीवित मनुष्य पर ऑपरेशन करते समय गलती न हो। यह आज के मेडिकल ट्रेनिंग मॉडल से आश्चर्यजनक रूप से मिलता-जुलता है।

बिना मशीन कैसे होती थी सर्जरी?

प्राचीन भारत में सर्जरी का आधार था—मानव हाथ की सटीकता, अनुभव और ज्ञान। मशीनों की जगह सर्जन के हाथ, आँखें और मस्तिष्क काम करते थे।

सर्जिकल उपकरण अत्यंत परिष्कृत होते थे—चाकू, सुई, चिमटी, आरी और कैथेटर जैसे औज़ार धातु से बनाए जाते थे। हर उपकरण का नाम, आकार और उपयोग स्पष्ट रूप से वर्णित था।

संक्रमण से बचाव के लिए शराब, जड़ी-बूटियों और उबालने की प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता था। ऑपरेशन से पहले और बाद में घाव को साफ रखना अनिवार्य माना जाता था।

प्राचीन भारत की प्लास्टिक सर्जरी

सबसे चौंकाने वाली उपलब्धि थी—नाक की पुनर्निर्माण सर्जरी (Rhinoplasty)। अपराध या युद्ध में नाक कट जाना आम था, और सुश्रुत संहिता में इसका सफल समाधान मौजूद था।

इस प्रक्रिया में मरीज के गाल या माथे की त्वचा का उपयोग कर नई नाक बनाई जाती थी। यही तकनीक बाद में यूरोप पहुँची और आधुनिक प्लास्टिक सर्जरी की नींव बनी।

18वीं सदी में ब्रिटिश डॉक्टरों ने भारत से इस तकनीक को सीखा और इसे पश्चिमी चिकित्सा में अपनाया।

मोतियाबिंद और अन्य जटिल ऑपरेशन

सुश्रुत संहिता में मोतियाबिंद (Cataract) ऑपरेशन का भी उल्लेख मिलता है। एक विशेष सुई से धुंधले लेंस को हटाया जाता था—जो आधुनिक तकनीक का प्रारंभिक रूप था।

इसके अलावा हर्निया, पथरी, फ्रैक्चर और घाव उपचार जैसी सर्जरी भी की जाती थीं।

मिथक बनाम विज्ञान

अक्सर यह मान लिया जाता है कि प्राचीन चिकित्सा केवल जड़ी-बूटियों तक सीमित थी। लेकिन तथ्य यह है कि यह एक पूर्ण वैज्ञानिक प्रणाली थी—जिसमें परीक्षण, प्रशिक्षण और नैतिकता शामिल थी।

यह कोई चमत्कार नहीं, बल्कि गहन अवलोकन और अनुभव का परिणाम था।

निष्कर्ष: आधुनिक चिकित्सा की जड़ें

प्राचीन भारतीय सर्जरी यह सिद्ध करती है कि विज्ञान और तकनीक केवल आधुनिक युग की देन नहीं हैं। सही ज्ञान, अनुशासन और अनुभव के साथ इंसान असाधारण उपलब्धियाँ हासिल कर सकता है।

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